जीवनकाल में अनेको परोक्ष गुरू आते हैं अर्थात् जिन्होंनें अब अपना पंचभूतात्मक शरीर त्याग कर दिया है लेकिन सूक्ष्म रूप से आज भी जीवात्माओं के कल्याण के लिए परोक्ष रूप से अनुभूति प्रदान कर करके परोक्ष गुरू के रूप में विद्यमान रहते हैं।
श्रीमद् भगवत्पाद शंकराचार्य
श्री शंकराचार्य का जन्मकाल विद्वत्मण्डली द्वारा 788 ई0 में केरल के कालडी ग्राम में बैषाख शुक्ल दशमी को निश्चित किया गया है। माता का नाम आर्याम्बा एवं पिता का नाम शिव गुरू था। शिवगुरू को संतान न होने के कारण उन्होंनें शिवजी की आराधना की जिसके फलस्वरूप भगवत्पाद का जन्म हुआ। बाल शंकर का उपनयन संस्कार 5 वर्ष में हुआ और असाधारण विषद बुद्धि होने से 8 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंनें वेदाध्ययन एवं 12वें वर्ष में सब शास्त्राभ्यास समाप्त कर लिया और उसी समय उनके पिता के भौतिक देह का परित्याग कर देने पर तत्पश्चात ही ब्रह्मचर्य अवस्था में ही तीव्र वैराग्य उदय होने पर श्री गोविन्दपादाचार्य से नर्मदा तट पर सन्यास दीक्षा ली और 16 वर्ष की अवस्था में काशी जाकर प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखे। तदन्तर सनातन वैदिक धर्म के पुनर्संस्थापन का अलौकिक कार्य किया और तत्कालीन प्रचलित अवैदिक धर्म सम्प्रदायों को निरस्त किया। अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त की विश्व में सुदृढ़ नींव कायम करने का एकांकिक श्रेय श्री शंकराचार्य भगवत्पाद को ही है। इतना सब कुछ अलौकिक कार्य 32 वर्ष के अल्प समय में संपादित करके सन् 820 ई0 में अपना प्रातः स्मरणीय नाम सदा के लिए छोड़ गये।
महामहोपाध्याय पं0 गोपीनाथ कविराज
इन्हीं परोक्ष गुरूओं में सर्वप्रथम महामहोपाध्याय पं0 गोपीनाथ कविराज जी हैं। विश्राम कुटीर, वाराणसी से श्री जयदेव जी श्रीसाधना की भूमिका में महामहोपाध्याय पं0 गोपीनाथ कविराज जी के विषय में बताते हैं। श्रद्धेय महामहोपाध्याय डाक्टर गोपीनाथ कविराज एक असाधारण व्यक्ति थे। वह अपने आप में ही विभूति और संस्था थे। बीसवीं शती में हमारे हमारे देश में कुछ प्रसिद्ध साधक हुए हैं। कुछ प्रसिद्ध दार्शनिक भी हुए हैं किन्तु साधना और दार्शनिक प्रतिभा का जो सुन्दर समन्वय श्रद्धेय कविराज जी में मिलता है, वह कहीं अन्यत्र नहीं मिलता। लगता है 10वीं शताब्दी के अभिनवगुप्त श्री कविवराज जी के रूप में पुनः इस धरातल पर 20वीं शताब्दी में प्रकट हुए। एक और विशेषता कविराज जी में पाई जाती है जो अभिनवगुप्त में भी नहीं थी। अभिनवगुप्त मूर्द्धन्यज्ञानी और तन्त्र के अनुपम साधक थे, किन्तु श्रद्धेय कविराज जी में उत्कृष्ट ज्ञान के प्रकाश और तन्त्र की रहस्यमयी साधना के अतिरिक्त जो प्रेम की निर्मल धारा का प्रवाह देखने को मिलता है, वह अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है। कविराज जी ने अपने जीवन में सैंकड़ों लेख लिखे जिनमें से कुछ अभी भी अप्रकाशित है। कविराज जी के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन।
संत श्री ज्ञानेश्वर जी
अन्य परोक्ष गुरू श्री ज्ञानेश्वर जी हैं। सिद्ध सन्तों की गणना में श्री ज्ञानेश्वर जी का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। आपका जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में गोदावरी नदी के किनारे स्थित अपने गाँव में सम्वत् 1332 भाद्रकृष्णअष्टमी की मध्यरात्रि को हुआ था। आपके बचपन का नाम ज्ञानदेव था। किसी संत ने कहा है-‘ज्ञानदेवे रचिला पाया। उभारिले देवाललया’। इसी कारण विद्वान और संत-महात्माओं ने आपको आचार्य रूप से स्वीकार किया है।
महाराष्ट्र प्रान्त में अनेक भवद्दर्षी (जीवनमुक्त) संत हुए हैं। उनमें श्री एकनाथ जी, श्री तुकाराम जी, समर्थ रामदास जी, जनाबाई, सुखूबाई, श्री नामदेव जी आदि सभी सन्तों ने ज्ञानेश्वर जी महाराज की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। उन्होंनें यह भी अनुभव किया है कि हमारे आध्यात्मिक जीवन के यही मूल स्त्रोत हैं। प्रत्येक संत ने अपने ऊपर ज्ञानेश्वर जी की कपा है – ऐसा अपने ग्रन्थों में बताया है।
जीवन में ऐसे महान उच्चकोटि के परोक्ष गुरू प्राप्त करना अपने आप में एक महान उपलब्धि है और इन दो महापुरुषों द्वारा दिये गये ज्ञान को आत्मसात कर पाने में यदि आज सफलता प्राप्त होती है तो केवल इनकी ही परोक्ष कृपा का परिणाम है।