ओम नमो जी आद्या

ओम नमो जी आद्या, वेद प्रतिपाद्या।
जय जय स्वसंवेद्या, आत्मरूपा।  – श्री ज्ञानेश्वरी ।

महाराष्ट्र का सर्वाधिक लोकप्रिय उद्बोधक एवं श्रद्धेय ग्रन्थ के रचयिता ज्ञानमूर्ति योगीराज ज्ञानेश्वर जी ने अपने ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए उक्त स्तुति की है, जिसका अर्थ है – ‘हे आदिशक्ति स्वरूप जगदम्ब! वेदों ने आपको ही प्रतिपादित किया है, आप स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप हैं।  आपकी सदा जय हो, मैं आपको विनम्र प्रणाम करता हॅूं।’

संत ज्ञानेश्वर जी अपने अलौकिक दार्शनिक ग्रन्थ अनुभवामृत या अमृतानुभव में श्रीविद्या अर्थात् शिवात्मस्वरूप शक्ति उपासना के सन्दर्भ में दिव्य वन्दना करते हुए कहते हैं –

‘यदक्षरमनाख्येयं आनन्दं अजमव्ययम।
श्रीमन्निवृतिनाथेति ख्यातं दैवतमाश्रये।।1।।
गुरूरित्याक्ष्यया लोके साक्षात् विद्या हि शांकरी।
जयत्य ज्ञा नमस्तस्यै दयाद्र्रायै निरन्तरम्।।2।।
सार्धं के न च कस्यार्धं शिवयोः समरूपिणौ।
ज्ञातुं न शक्त्ये लग्नं, इति द्वैतच्छलान्मुहुः।।3।।
अद्वैतं आत्मानस्तत्वं दर्शयन्तौ मिथस्तराम्।
नौ वन्दे जगतामाद्यौ, तयोस्तत्वाभिपतये।।4।।
मूलायाग्रयमध्याय मूलमध्याग्रमूर्तये।
क्षीणाग्रमूलमध्याय, नमः पूर्णाय शम्भवे।।5।।

अर्थात् विकाररहित, अवर्णनीय, सुखमय, जन्मरहित, अविनाशी, सुप्रसिद्ध श्रीमत् सद्गुरू श्री निर्वृतिनाथ स्वरूप परमात्मा का मैं आश्रय लेता हॅूं।अपनी गुरूता में लोकप्रसिद्ध अर्थात् ‘श्री गुरू परम्परा’नाम से सुप्रचलित प्रत्यक्ष शांकरी विद्या चित्कला (श्रीविद्या), जो अखण्ड दया बरसाती है, जयकार के साथ मैं उसे प्रणाम करता हॅूं।बार-बार द्वैतरूप में आभासित होने वो शिव-शक्ति रूप एकरूप अभिन्न जोड़े में कौन किससे संलग्न है या कौन किसका आधा भाग है, यह जानना सम्भव नहीं है।

द्वैतभाव रहित या अद्वैत स्वरूप अद्वितीय आत्मतत्व स्वरूप शिव-शक्ति समरस होकर जगत् के आदि कारण बने हैं, अतः इस मूल तत्व की प्राप्ति के लिए मैं उन्हें प्रणाम करता हॅूं।जगत् की उत्पत्ति, स्थित और विलय के मूल कारण तथा जगत् के आरम्भ, मध्य एवं अनन्त के मूल अधिष्ठान और जगत् के निर्माण, स्थायित्व एवं नाश के विकार से रहित पूर्ण स्वरूप शिव-शक्ति स्वरूप शम्भू को मैं प्रणाम करता हॅूं।