स्वामी जी के विषय में

बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के स्वभाव में रहने वाले स्वामी जी को अनेकों संतो एवं मनीषियों का आश्रय एवं मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा है।  प्रारम्भ से ही अपनी आध्यात्मिक अन्वेषणात्मक प्रवृत्ति होने के कारण सनातन धर्म के शास्त्रों में महती रूचि रही है जिसके चलते इस परम की यात्रा की निरन्तरता बनी रही।  स्वामी जी एक गृहस्थ योगी हैं और एक गृहस्थ साधक।  मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लेने के कारण अनेकों अभावों का सामना करते हुए जीवनयापन करते रहे और ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण अपने दायित्वों को भी समझते थे परन्तु दैव के साथ हमेशा इस विषय पर शिकायत रखते थे कि सामाजिक रूप से इतना भेद क्यों?  स्वामी जी कर्म के सिद्धान्त को तो मानते ही थे, आज भी मानते हैं लेकिन फिर भी सामाजिक विसंगतियों को लेकर मानसिक झंझावात में घिरे रहते थे कि समानता क्यों नहीं है और इसी बात को लेकर साधनामार्गी हो गये कि साधना के माध्यम से ईश्वर से आँख से आँख मिलाकर अपने अधिकार के लिए ईश्वर को चुनौती देकर अपना अधिकार प्राप्त करना ही है क्योंकि इसी का नाम साधना है।  ऐसा मन में विचार करके अनेको संतों-मनीषियों से सम्पर्कित होकर इस विसंगति को समाप्त करने के विषय में अन्वेषण चलता रहा जैसा कि स्वामी जी ने अपनी दो पुस्तको ‘‘परम पथ का पथिक‘‘ और ‘‘परम पथ की यात्रा‘‘ में वर्णित किया है कि अनेकों सम्प्रदायों के अन्य परम पथ के पथिकों का सहयोग प्राप्त करके किस प्रकार से साधना में निरन्तरता बनी रही और क्या-क्या अनुभव हुए?

इन्हीं दोनों पुस्तकों में कई स्थानों पर हमें यह भी देखने को मिलता है कि अनेकों महापुरुषों ने स्वामी जी को अपने तपोबल से दिव्य दर्शन भी करवाये जिसमें भाईजान ने उन्हें माता आदि त्रिपुरसुन्दरी भुवनेश्वरी का मनोरम एवं फिर माता महाकाली के प्रचण्ड रूप का भी दर्शन लाभ प्रदान किया।  डॉक्टर साहब द्वारा अपने साधना बल से उन्हें परमाणु विखण्डन क्रिया का न केवल साक्षीभूत बनाया गया वरन् भूगर्भ सिद्धि एवं अन्य सिद्धियों का भी प्रयोगात्मक साक्षीभूत किया गया।

इसके अतिरिक्त स्वयं महामाया माता त्रिपुर सुन्दरी आदि भुवनेश्वरी की सखियों जया एवं विजया द्वारा भी स्वामी जी को गले लगा कर आगे की तपस्या के लिए मार्गदर्शन दिया गया।  स्वामी जी की दिव्य प्रेमिका शनुति द्वारा भी समय-समय पर अपने लोक से पृथ्वी पर आकर स्वामी जी को पथभ्रष्ट होने से एवं साधना से च्युत होने के बचाकर साधना की निरन्तरता में मार्गदर्शन देकर सहयोग किया।  साधना के समय हुई चूक के कारण जब प्राण संकट में आ गये तो शनुति की ही दिव्य सखी जो कि दिव्य नागलोक की एक नाग योनि से आई थी, उस दिव्य नागकन्या के द्वारा समय पर पहुंचकर स्वामी जी की प्राणरक्षा की गई।  इस प्रकार स्वामी जी के विषय में कहा जा सकता है कि स्वामी जी को सदैव से ही दैव का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त होता रहा है।

गुरुत्व

सृष्टि के साथ माया के प्रभाव से देशगत, कालगत विचित्रताएं होती हैं।  गुरू की कृपा से जब माया तिरोहित हो जाती है, तब सभी नित्य वर्तमान तथा नित्य सन्निहितवत् इसी प्रकार प्रकट होता है।  इसलिए जो महाज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, उनके निकट कोई वस्तु दूर नहीं रहती।  इच्छामात्र से सब उपस्थित हो जाती है।  देश-काल का व्यवधान माया से उद्भूत होता है।  माया की निर्वृति गुरू की कृपा से होती है।  इसी गुरू का नाम है – सद्गुरू।

        शंकराचार्य ने कहा है –

वास्तव में गुरू के कार्य महायोगी की तरह हैं।  महायोगी जिस प्रकार अपनी इच्छानुसार सभी चीजों को प्रकट कर सकते हैं, सद्गुरू भी उसकी प्रकार सब कुछ अपने भीतर से उत्पन्न कर सकते हैं अर्थात् ईश्वरभाव प्राप्त न होने पर सद्गुरूभाव प्राप्त नहीं हो सकता।  सद्गुरू महायोगी की तरह होते हैं।

वेद और गुरू दोनों को जानना आवश्यक है।  वेद अनादि, अनन्त, नित्य और वर्तमान है।  वेद से जो सद्वाक्य निकलते हैं, वे ही सद्गुरू हैं।  पूर्ण गुरूवाक्य ‘तत्वमसि’ वेद वाक्य लोक-लोकान्तर, मुनि-ऋषि के अतीत हैं।  यह न सोचें कि वेद एकमात्र पुस्तक है।  अखण्ड ज्ञानराशि ही वेद हैं।  वेद साधारण लोगों के निकट बोधगम्य नहीं होता।  गुरू इसका मंथन कर जीवोद्धार का मार्ग बताते हैं।  श्रीदक्षिणामूर्तिस्वरूप श्री गुरूदेव का स्मरण करता हॅूं।

गुरू का स्वरूप है उसे बता रहा हॅूं।  बहुछिद्रवशिष्ट घट में अवस्थित विराट प्रदीप प्रभाववशतः उज्जवल तथा भास्वर ज्ञान जिसके चक्षुरादि कर्णवर्ग को आश्रय कर बहिर्गत होकर स्पन्दित होता है, उसी स्पन्दन का नाम प्रकाश या ज्ञान है।  आत्मस्वरूप का प्रकाशमान ज्ञान ही आदि ज्ञान या प्रकाश है।  इसका अनुकरण कर अर्थात् इस प्रकाश से प्रकाशमान होकर समग्र विश्व प्रकाशमान होता है।  इससे यह समझ में आता है कि गुरू का स्वरूप जिन्हें दक्षिणामूर्ति कहा गया है, ज्ञान स्वरूप तथा आत्मा का स्वभावसिद्ध धर्म है।  ज्ञानरूप में ‘मैं जानता हॅूं’इस आकार को अवलम्बन करते हुए यह स्पन्दित होता है।  यही ज्ञान या प्रकाश अनुकरण कर समग्र विश्व प्रकाशित होता हैं,  ज्ञानरूपी रूपी दक्षिणामूर्ति गुरू तत्व की यही महिमा है।